आरज़ू की बेहिसी का गर यही आलम रहा
बेतलब आएगा दिन और बेख़बर जाएगी रात
शाम ही से सो गए हैं लोग आँखे मूंदकर
किसका दरवाज़ा खुलेगा किसके घर जाएगी रात
आरज़ू की बेहिसी का गर यही आलम रहा
बेतलब आएगा दिन और बेख़बर जाएगी रात
शाम ही से सो गए हैं लोग आँखे मूंदकर
किसका दरवाज़ा खुलेगा किसके घर जाएगी रात