भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आरज़ू की बेहिसी का ग़र यही आलम रहा / शहजाद अहमद
Kavita Kosh से
आरज़ू की बेहिसी का गर यही आलम रहा
बेतलब आएगा दिन और बेख़बर जाएगी रात
शाम ही से सो गए हैं लोग आँखे मूंदकर
किसका दरवाज़ा खुलेगा किसके घर जाएगी रात