भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आरती / 4 / भिखारी ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रसंग:

इस आरती में गंगा की महिमा का वर्णन करते हुए कामना की गई है। जब-जब जन्म हो, तब-तब गंगा दर्शन-मंजन-पान का अवसर मिले।

तेबड़ा

गंगा हरहु कष्ट विकार
स्रवण हिमगिरि जगत पावनी आई निकट हरिद्वार॥
लहर जग मग ज्योति चमकत बहत शीतल धार।
कतहूँ गहिरा रेत बालू झउआ झुर करार॥
कतहूँ गरजत-चकोह बान्हत कच्छ-मछ घरियार।
कतहूँ सरवर घोल माटी परत होखत मार॥
चढ़त चदरा-धूप-दीपक-केरा-नरियर-हार।
दरस-मंजन-पान करते होत अघ जरिछार॥
शिव का मस्तक के निवासी देवन के सरदार।
जन्म जब-जब होय जग मँह पाऊँ दरस तोहार॥
कहे ‘भिखारी’ गाई केही विधि महिमा अपरम्पार। गंगा हरहु कष्ट विकार॥