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आरम्भ और अन्त / विस्साव शिम्बोर्स्का

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हर युद्ध के बाद
करनी होगी किसी को तो सफ़ाई ।
आख़िर, सब स्वयं ही
ठीक तो नहीं हो जाएगा ।

किसी को तो हटाना होगा मलबा,
करनी होंगी सड़कें साफ़,
ताकि मिल सके रास्ता
लाशों से लदी गाड़ियों को ।

किसी को तो उतरना होगा
कीचड़ में और राख में,
सोफ़ों के स्प्रिंग,
काँच की किरचन,
ख़ून से सने चिथड़ों में ।

किसी को तो खींच कर लानी होगी शहतीर
देने के लिए ढहती दीवार को सहारा
किसी को तो जड़ना होगा खिड़की में शीशा
फिर-से लगाना होगा दरवाज़ा ।

यह सब चलेगा कई साल यूँ ही
नहीं है तस्वीर खींचे जाने लायक भी.
अब जा चुके हैं सभी कैमरे
किसी और युद्ध को खोजने ।

अब फिर चाहिए होंगे हमें
पुल और नए रेलवे-स्टेशन ।
अब फिर से फटने लगेगीं
ऊपर चढाने से आस्तीनें ।

हाथ में झाड़ू लिए, याद करता है कोई
कि पहले सब कैसा था
कोई सुनता है, और हाँ में हिलाता है
अपना अनकटा सर ।
और आस-पास खड़े अन्य लोग
ऊब चुके हैं पहले ही इस सब से ।

झाड़ियों के नीचे से
कभी कोई खोद निकालता है
ज़ंग-खाई बहसें
और डाल आता है उन्हें कूड़े के ढेर पर ।

वे जो जानते थे
कि यहाँ क्या हो रहा था,
उन्हें देनी होगी जगह उनको
जो बहुत कम जानते हैं ।
कम से भी कम.
यहाँ तक कि कुछ नहीं से भी कम ।

इस घास में, जो हो गई है बड़ी
कारणों और वजहों से भी,
लेटा होगा कोई पैर पसार के
मुँह में घास का तिनका चबाए
बादलों को ताकता हुआ ।