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आराम से है कौन जहान-ए-ख़राब में / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'

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आराम से है कौन जहान-ए-ख़राब में
गुल सीना चाक और सबा इजि़्तराब में

सब उस में महव और वो सब से अलाहिदा
आईने में है आब न आईना आब में

मानी है फ़िक्र चाहिए सूरत से क्या हुसूल
क्या फ़ाएदा है मौज अगर है सराब में

नै बाद-ए-नौ-बहार है अब नै शमीम-ए-गुल
हम को बहुत सबात रहा इजि़्तराब में

हैरत है क्या नकाब हैं गर रंग रंग
नैरंग-ए-जलवा से है तनव्वो नक़ाब में

फ़ुर्सत कहाँ कि और भी कुछ काम कीजिए
बाज़ी में जुम्मा सर्फ़ है शम्बा शराब में

ज़ात ओ सिफ़ात में भी यही रब्त समझिए
जो आफ़ताब ओ रौशनी-ए-आफ़ताब में

क़ता-ए-नज़र जो नक़्श ओ निगार-ए-जहाँ से हो
देखो वो आँख से जो न देखा हो ख़्वाब में

तूबा लहुम जो कुश्त-ए-इश्क़-ए-अफ़ीफ़ हैं
क्या शुबह उस गरोह के हुस्न-ए-मआब में

मरने के बाद भी कहीं शायद पता लगे
खोया है हम ने आप को अहद-ए-शबाब में

फिर है हवा-ए-मुतरिब-ओ-मय हम को ‘शेफ़्ता’
मुद्दत गुज़र गई वारा ओ इजि़्तनाब में