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आरिज़ों की धनक में क्या कुछ था / सुरेश चन्द्र शौक़

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आरिज़ों की धनक में क्या कुछ था

उस हया, उस झिझक में क्या कुछ था


आबजू ,जाम, शे`र , दो रूहें

चाँदनी की चमक में क्या कुछ था


उम्र भर के जगे भी सो जाएँ

गेसुओं की चमक में क्या कुछ था


अव्वलीं शब,विसाल के हंगाम

चूड़ियों की छनक में क्या कुछ था


बर्फ़ज़ारों में आग लग जाए

उस बदन की दहक में क्या कुछ था


जाँफ़ज़ा महफ़िलें वो शाम ढले

साग़रों की खनक में क्या कुछ था


देखते रह गए सब अहल—ए—नज़र

हुस्न की इक झलक में क्या कुछ था


‘शौक़’! दोनों जहान सजदा—गुज़ार

मयकशों की लहक में क्या कुछ था.


आरिज़+गाल;आबजू=नदी;अव्वलीं शब=पहली रात; बिसाल के हंगाम=मिलन के समय सजदागुज़ार=दण्डवत; मयकशों=मदिरा का सेवन करने वालों.