भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आरे गिरि-परबतवा में जरत अगिनियाँ / भोजपुरी
Kavita Kosh से
आरे गिरि-परबतवा में जरत अगिनियाँ, पाटन भइले अँजोर।
ओही त अँजोरवा पिया डोलवा फनवलें, लेइ चले देसवा-विदेस।।१।।
खालवा-खालवा लेइ चलु आहे रे कँहरिया, कि ऊँचे खेते जोते हरवाह।
बिछिया के बाजा सुनि गोला बरधा चमके, कि हाँ रे आँतरों ना समधिर, लाल रे।।३।।
कि धोवल कापड़ पेन्हे थारू-थरूहनियाँ, कि झिलमिल पेन्हे कालवार,
आहो रामा, मचिया बैठल बाटिन मदिया चुआवे, कि छैला के लेले बिलमाय।।४।।
लोहवा जे गढ़ेले आहे रे लोहरवा, कि सोनवा जे गढ़ेले सोनार, कि आहो रामा।
बेसरि गढ़ावेला आहो छैला रसिया कि बहिए पहिरावे राजदुलारी, कि आहो रामा।।५।।
अरे पहरि-ओढि़य धनि बाहर भइली, कि माँझ आँगन होई भइली ठाढ़।
खरिखे-परीखे आहो छैला रसिया, कि मोरी बूला सहलो ना जाय, लाल री।।६।।