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आरोहित मन / अमृता भारती
Kavita Kosh से
पुरातन समय में
कभी
मेरे मन का फूल
ऊपर चला गया था
बढ़ते पानी के साथ बढ़ता हुआ —
एक समर्पित आरोहण ।
फिर किसी नए क्षण में
पानी नीचे उतर गया —
पर
मेरे मन का फूल
अब भी ऊपर है
पँखुड़ियों के बीच
वह जीवित है
अपने बीज के अन्दर
मिट्टी की परतें हटाता
पंक में धँसी अपनी जड़ों को काटता
मेरे मन का फूल
जीवित है —
धरती नहीं
अब आकाश सरोवर है ।