भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आरो कोॅन दुख छै, जे बचलोॅ छै? / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
आरो कोॅन दुख छै, जे बचलोॅ छै?
सब्भे टा दुख छी पचैलेॅ, सब पचलोॅ छै।
हमरे कहानी हरिचन्नर रोॅ किस्सा मेँ
चौदह बरस रोॅ दुख, ऐलोॅ छै हिस्सा मेँ
सूली पर टँगलोॅ छै हमरोॅ सब करम-धरम
सरँगोॅ पर बैठलोॅ कोय मनवै छै शोक-शरम।
जत्तेॅ दुख तीरे रँ छूटै-ऊ छुटलोॅ जाव
हमरोॅ मन धनुखे रँ पैहनें सेँ लचलोॅ छै।
आँधी-बातासोॅ रँ आवै दुख, चल्लोॅ जाय
पानी मेँ लकड़ी रँ मोॅन हमरोॅ गल्लोॅ जाय
जमुना रँ बहिनी केॅ जम्मोॅ रँ भाय छै
तैय्यो तेॅ भाग-फल शेष रही जाय छै।
आरी के पार गेलै धामिन कोय, नागिन कोय
सरसर आवाज आरो रेखा भर बचलोॅ छै।
-आज, पटना, 24 सितम्बर, 1996