आर्त्तनाद / प्रताप नारायण सिंह
तुम चली गई
मुझे एक अंतहीन नीरवता से आच्छादित करके।
मेरे तर्क
जो कभी मेरी मिथ्या श्रेष्ठता सिद्धि के वाहक होते थे,
आज मेरी ही ओर भृकुटी ताने खड़े हैं।
मैंने तुम्हें चाहा था बहुत....पूरे अंतर्मन से...
हर पल तुम्हारी अभिलाषा की थी
हर क्षण तुम्हारी प्रतिच्छाया में ही लिपटा रहा
मेरे अन्तस्थ और बहिरत तुम ही रही।
नहीं...मिथ्या हैं ये शब्द.....बिल्कुल मिथ्या !
सच तो यह है कि
मैंने चाहा था तुम्हारे चक्षुओं में प्रतिष्ठित
अपनी आकृति को
मैंने चाहा था मुझे देखकर
तुम्हारे मुख पर प्रस्फुटित हुए उल्लास को
मैंने चाहा था मुझमें राग भरते
तुम्हारे घन-केश, संदल-देह और स्नेहिल अंकमाल को
मैंने चाहा था, मेरे निमित्त
तुम्हारे हर क्रिया कलाप को
मैंने चाहा था तुममें
मात्र अपने आप को।
कहाँ चाह पाया था तुम्हें कभी?
कहाँ आत्मसात कर सका था तुम्हारे स्व को?
कहाँ विगलित कर पाया अपना स्वत्व तुममें.
कहाँ जी पाया एक क्षण के लिए भी "तुम' बनकर.
कुछ भी तो नहीं दे सका तुम्हें.
अपने अहं का
एक अंश भी नहीं समर्पित कर सका।
अन्यथा तुम नहीं जाती...
तुम जा ही नहीं पाती
यदि समर्पण का कुछ भार डाल दिया होता तुम पर
तुम नहीं अलग हो पाती
यदि स्वयं को थोड़ा मिला दिया होता तुममें।
किन्तु मैं ऐसा कर नहीं पाया...
और तुम चली गई
मुझसे निराश होकर...
(स्वगत)
अजीब सी नीरवता है...
नहीं, यह नीरवता नहीं
मेरे खंडित अहं का आर्त्तनाद है।