आर्त-विनय / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
दीनबन्धु, हे दयासिन्धु! हे दुखहर्ता! सुखदाता।
पीड़ित जन के सबल सहायक प्राणि मात्र के त्राता॥
आश्रयहीन, न जिसका जग में कोई अपना होता।
शरण तुम्हारी पाकर जन वह निर्भय सुख से सोता॥
मैं भी तो उनमें से ही हूँ एक निराश्रित प्राणी।
शक्ति नहीं, निज दुख रोते भी कंपित होती वाणी॥
पर तुमसे है छिपा न कुछ भी, हो तुम अन्तर्यामी।
प्रकट करूं फिर शब्दों में क्या दुख अपना मैं स्वामी॥
जाने कितनी बार दुखों से तुमने मुझे उबारा।
डूबा जब-जब शोक-सिन्धु में तब-तब दिया सहारा॥
एक साथ आकर अब तो दारुण दुःखों ने घेरा।
देख चुका सर्वत्र जगत् में हितू न कोई मेरा॥
तुम्हीं कहो फिर जाकर किसके सन्मुख हाथ पसारूँ।
अपने हुए पराये, फिर अपना कह किसे पुकारूँ॥
मेरे माता-पिता बन्धु या मित्र तुम्हीं हो केवल।
हो निर्धन के धन तुम ही मुझ निराधार के सम्बल॥
भला-बुरा जैसा भी हूँ बस हूँ मैं दास तुम्हारा।
दया-दृष्टि कर के बरसा दो संजीवन की धारा॥
आया जो भी दीन, न लौटा कभी द्वार से खाली।
घिरी घटा संकट की सिर से पल में तुमने टाली॥
फिर मेरी यह आर्त-विनय कैसे न रंग लायेगी।
दीन दशा यह मेरी कैसे तुम्हें न पिघलायेगी॥
पूत-कपूत भले हो, निष्ठुर होते पिता न माता।
सुत को व्याकुल देख कलेजा है उनका भर आता॥
फिर तुम तो हो पिता सभी के, सबके पालनहारे।
समदर्शी हो, दीन अधिक तुमको प्राणों से प्यारे॥
दया करो मुझ दीन-दुखी पर दुख-दारिद्र नशाओ।
टूटीं सब आशाएँ अब तो अपना मुझे बनाओ॥