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आलस्य / शंख घोष / प्रयाग शुक्ल
Kavita Kosh से
उस सबकी चिन्ता करो नहीं, उस सबका तो कोई अन्त नहीं
छोड़ो, आओ देखो बैठो यहाँ
देखो यह, किसी एक छोटी-सी चीज़ को
और बड़ा करते ही
लगने क्यों लगता है अशालीन
वहाँ दूर भय से वे चले गये दौड़ते माटी में
छाती में तुम्हारी भी होता क्यों कम्पन
आँखों में छाया आलस्य का भार यह
फिर भी क्यों होती यह चाहना
ठीक ठाक सब कुछ है ना !
मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
(हिन्दी में प्रकाशित काव्य-संग्रह “मेघ जैसा मनुष्य" में संकलित)