भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आलू-गोभी! / विश्वप्रकाश 'कुसुम'
Kavita Kosh से
दावत ने है मन ललचाया!
क्या लोगे तुम आलू-गोभी?
क्या खाओगे आलू-गोभी?
गोभी का है स्वाद बढ़ाया!
सबकी यही पुकार-आलू-गोभी
सब करते तकरार-आलू-गोभी!
जैसी गोभी वैसे आलू,
आलू का बन गया कचालू!
‘गोभी-गोभी’ हैं चिल्लाते,
गोभी की हैं धूम मचाते!
गोभी जैसे हो रसगुल्ला,
नरम-नरम खाते अबदुल्ला!
नहीं चाहिए हमें मिठाई,
आलू-गोभी दे दो भाई।