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आलोक / केशव
Kavita Kosh से
सुनो
अभी तक नष्ट नहीं हुआ
वह आलोक
जिसने बुना हमेशा
आर-पार जाने के लिए एक पुल
अभी तक थके नहीं स्पर्श
काँपती उँगलियों में
बाकी है
संवेदन
खिड़की पर उतरती है सुबह
उन्हीं मुग्ध रंगों के साथ
आहटें
आकुल,प्रश्नहीन
तैरती जुगनुओं की तरह आस-पास
एक हल्की उदास गूँज में
डूबी हुई शाम
प्रतीक्षा करती है
उन्हीं गीतों की कड़ियों की
जिन्हें गोधुलि बेला में
गाया करती है नदी