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आलोक / सुतपा सेनगुप्ता
Kavita Kosh से
1.
किस तरह बचाऊँ तुझे मेरे बच्चे!
ज़िन्दगी के कालेपन से
आसमान का चाँद भी तो बेदाग़ नहीं।
तो फिर क्या तुझे
सूर्य पर लुटा दूँ
शून्य में मुट्ठी भर राख के फूल
बिखेर दूँ!
खिलौना नहीं
ख़ून और माँस गढ़ा गया
गुड्डा है तू!
2
रोज़ सुबह-सुबह
निमाई की तरह घर छोड़ चली जाती हूँ
पीछे रह जाता है
बिस्तर पर सो रहा बच्चा,
जब जागता है तो
पाता है दुःख
तो लोटता है धूल में वह दुखी
छटपटाता रहता है दिन भर
मेरा शचीनन्दन,
मालिक समझ नहीं पाता
दिखाता है आँखें, नाख़ून
जैसे कि बाज़
सहकर्मी ठेस पहुँचाते हैं
कभी-कभी मिल जाता है
थोड़ा-बहुत मौक़ा
माँ और बच्चे को सुक़ून भरी भोर ...।
मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी