आलोचना / अमित कुमार अम्बष्ट 'आमिली'
कई बार आधी रात को
जगा देती है आलोचना,
चलती है सीने पर
धारदार आरी-सी आलोचना।
मन की गठरी में
अभिशप्त गांठों - सी बंधी-
घुटन बन जाती है आलोचना,
तो कभी नदी के
दलदले किनारों में धंसे पाँव सी ,
रस्ता रोक
खड़ी हो जाती है आलोचना।
कभी रेगिस्तान में
दिखते ताल-सी
मरिचिका बन जाती है आलोचना
तो कभी भटके जंगलों का
चौरस्ता बन जाती है आलोचना
आलोचना टकराती है
ऊंचे पर्वत से! - निकलते
अल्हड़ अनियंत्रित प्रपात के वेग को
तटबंध-सा नियंत्रित कर देती है आलोचना।
तो कभी पेंसिल से उकेरी अशुद्धियों को
रबर-सा सही कर देती है आलोचना।
आलोचना को दिखता है
तलवे में चुभा सूक्ष्म शूल भी!
छोटी सूई-सी
तलवे से शूल को
अलग कर देती है आलोचना।
आलोचना है सुघड़ चलनी-सी
आटा में से चोकर
समेट ही लेती है आलोचना