भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आल्ता / आनंद खत्री

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुर्ख वो सपनों की परत
जहाँ तुम चोरी चोरी जाते हो
उसकी मिट्टी के कुछ निशां
अल्ताई तुम्हारे पाओं में।

सुर्ख चाहत का बेसिरा नशा
जो रहते रहते ढलता है
अब भी एक लकीर बनकर
पावों के धीग पे खिलता है।

कुछ आस करीबी सपनों की
दिन धीरे धीरे ढलता है
माटी के दिए की बाती पर
इस शाम को लेकर जलता है।

हर बार तुम्हारे जीवन को
हर सौम्य सिन्दूरी आशीष रहे
हर साल तुम्हारी तीज पर
किसी चाहत का पैगाम रहे।