भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आवत मैँ सपने हरि को लखि / मतिराम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आवत मैँ सपने हरि को लखि नैसुक बाँट सँकोचन छोड़ी ।
आगे ह्वै आड़े भए मतिराम मँहू चितयोँ चित लालच ओड़ी ।
होठन को रस लेन को आलि री मेरी गही कर काँपत ठोड़ी ।
और भई न सखी कछु बात गई इतने ही मे नीँद निगोड़ी ॥


मतिराम का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।