भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आवाज़ कम कर / अवनीश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
यह रईसों का
मुहल्ला है जरा
आवाज़ कम कर
चाय पीने पर निकलती
भी नहीं हैं चुस्कियां,
अब नहीं बजतीं घरों में
कूकरों की सीटियां
टिकटिकाती
भी नहीं कोई घड़ी
चलती निरन्तर
फुसफुसातीं हैं महज़ अब
पायलें औ चूड़ियां,
बस इशारों में समझते हैं
लिफाफे चिट्ठियां
गिट्टियों सीमेंट
वाले मन
हुए हैं ईंट पत्थर
रात दिन बस पोपले मुख
बुदबुदाहट, आहटें
बिस्तरों से बात करती हैं
यहां खिसियाहटें
गेट दीवारें
पड़ी सूनी सड़क तू
आह मत भर