आवाज़ / अमरजीत कौंके
बहुत उदास होता हूँ
साँझ को
घर लौटते
परिन्दों को देखकर
अपना घर याद आता है
खुली चोंचें याद आती हैं
जिनके लिए
मैं चुग्गा चुगने का
वादा कर
एक दिन चला आया था
उदास होता हूँ बहुत
जब अपने
बेबस पंखों की तरफ देखता हूँ
अपने पाँव में पड़ी बेड़ियाँ
किश्तों में बँटा हुआ
अपना जीवन देखूँ
उस दौड़ की रफ़्तार देखूँ
जिस में मैं महज़
एक रेस का घोड़ा बनकर
रह गया हूँ
उदास होता हूँ बहुत
जब अपनी अंगुलियों के पोरों में
जगमगाती कविताओं की
याद आती है
वह शब्दों का आकाश
जो उदासी के समय
मेरे सिर पर फैल जाता था
सघन छाँव बनकर
और मैं
कविता लिखकर
जीवन की मुक्ति तलाश लेता था
बहुत उदास होता हूँ
इस उदासी में
तुम्हारी आवाज़ सुनता हूँ
तो मेरे भीतर पिघलने लगती
उदासी की बर्फ़
बूँद-बूँद
रिसने लगता है
समुद्र
तुम्हारी आवाज़ सुनता हूँ
तुम्हारी आवाज़
किसी पेन-किलर की तरह
थोड़ी देर के लिए
मुझे मेरा
दर्द भुला देती है
मेरी जाग रही आत्मा को
कुछ देर के लिये फिर
गहरी नींद सुला देती है ।
मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा