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आवाजें / नीता पोरवाल
Kavita Kosh से
भीड़ में चेहरे नहीं दिखते
दिखते हैं सिर से भिडे सिर्फ़ काले सिर
अबूझ रहस्यों और तिलिस्मों से भरे
समवेत स्वर में अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते
क्या कुछ आवाजें सिर्फ़ सुनाये जाने के लिए होती हैं
सुने जाने के लिए नहीं?