भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आविष्कार / अखिलेश श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं कुछ नये भाव रचना चाहता हूँ
जो अचरो के मन में बसे हो अबतक
जिनकी पहुँच आदमी तक न हो पायी हो
जैसे़ अपने देह से शाखा निकल आने का सुख
या फिर वह सीमांत दुख जिसमें जिंदा हरी छाल
छीली दी जाती हैं कुल्हाड़ी से
सफेद-सा द्रव्य कुल्हाड़ी की जीभ भिगोता हैं
और वह पागल हो जाती हैं!

कमजोर के खून और
और दबंग के लार का रिश्ता
आदम और हव्वा से भी पुराना है!

इन भावों का सूत्र खोजने
आबनूस से भी गहरे काले कंदराओ में भटकना होगा
कोटरो में सर डालकर
उनके भीतर रखे संदूको के ताले तोड़ने होंगे
पेड़ों की भाषा सीखनी होगी
जड़ों के रूदन और फुनगी का अट्टहास का
पुश्तैनी इतिहास समझना होगा!

इन भावों को रोपना है
किसी चर में
जो अचरो से बस एक कदम आगे हो
जिसने डग भरने सीखें ही हो
अधिक से अधिक सीखा हो कुलाचें भरना!

ऐसा आदम मिले तो बताना
जिसके पाँव तो हो
पर वह रौंदना न जानता हो!