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आवृत्ति / उपेन्द्र कुमार

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कमरे में फँसी गौरेया
उड़ती है, गिरती है, फिर उड़ती है
अर्थ की तलाश में शब्द
और अभिव्यक्ति के लिए
बेचैन नाद

गौरेय्या
टकराती है
दीवाल से, खिड़की के काँच से
पंखे से टकरा कर लहू-लूहान।
मरीचिका-सी
बाहरी उजाले की
कोई छोटी-सी फाँक
शायद कल्पना में ही कौंधती हो।
वह भरती है छलाँग
काश निकलती
सर्र.....
आकाश के शून्य और खुलेपन में

लौटती है गौरेय्या पृथ्वी की ओर
धरती के चुम्बक में।
लौटता है एक अमूर्त नाद
यहाँ वहाँ
शब्द
और अर्थ
आपस में टकराते
टक....टक....टक
गौरेय्या भटकती है
यहाँ, वहाँ

प्रश्न, प्रश्न और प्रश्न
लाल, पीले, उजले
हर रूप रंग धरे।
मन
खोजता कोई फाँक
कोई उत्तर
करने को सबको
निरुत्तर।
पीछे सीधे ओर सरल के
भागता है
बेदम हो हाँफता है
सड़कों, गलियों के ओर-छोर भुलावों में
माप बहुत दूरी
रह जाता है
वहीं का वहीं

पता नहीं लगता जाना
सम्भव नहीं हो पाता आना।
रचता है ऐसा चक्रव्यूह कौन
क्या अपनी ही अंतरात्मा का मौन?

विचित्र संरचना है
न द्वारों पर
न केन्द्र में
तैनात महारथी हैं
फिर चक्करदार गलियों की गुंजलकों में
चकरा-चकरा रह जाता है।
और फिर गलियों की क्या हस्ती है
फैला है यह तो
सीधी सपाट सड़कों तक।
जो लगता है,
जाती है शहरों से गाँवों तक
पर
आती है गाँवों से नगरों तक।
सपनों के आने के
मोहभंग कदमों के जाने के
सभ्यता से सभ्यता तक
या अभ्यता से असभ्यता तक
फैले ये रास्ते भी
बस दीखते ही सीधे हैं
वर्ना कहीं घूमते हैं
वर्तुलाकार
न कहीं से लाते हैं न कहीं पहुँचाते हैं
केवल उलझाते हैं
उसी चक्रव्यूह में फँसाते हैं

चक्रव्यूह
जो शायद है
या शायद है ही नहीं
परिधिविहीन है
अथवा अपरिमित।
शायद बड़ा धरती की गोलाई से
जीवन की हर छोटी-बड़ी अच्छाई-बुराई से

बाहर निकल नहीं पाता
हार मान रोता है
या ढीठ हो हँसता है
खींच रेखाएँ सरल
वृत के भीतर
चलता है उन पर
यहाँ से वहाँ
इठलाता है
हाथ हवा में लहराता है।
बाकी सबको बताता है-

निदान है सरल
उपचार है सम्भव
जब चाहूँगा
बता दूँगा
अभी थोड़ा व्यस्त हूँ
और कुछ बातें हैं
उनसे ही त्रस्त हूँ

बार-बार
घूम-घूम
लगती है हाथ वही
बाहर की चुप्पी
अन्तर का मौन
प्रश्नों को दिखाता लाल कपड़ा
पागल-सा पीछे दौड़ता

समूह हो, व्यक्ति हो, निजता हो
लौट आता है, उजाले का सारा सोच-विचार
गौरेय्या की तरह
धरती के चुम्बक की ओर
खींचता है यह पतनशील ठोस पथरीला अस्तित्व
शब्द और अर्थ से परे।