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आवे अचक मेरी बाखर में / ब्रजभाषा

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

आवे अचक मेरी बाखर में, होरी को खिलार॥
डारत रंग करत रस बतियाँ,
सहजहि सहज लगत आवे छतियाँ।
ये दारी तेरौ लगवार॥ होरी को. आवै.

जानत नाहिं चाल होरी की,
समझत बहुत घात चोरी की।
आखिर तो गैयन को ग्वार॥ होरी को. आवै.

गारी देत अगाड़ी आवै,
आपहु नाचै और मोहि नचावै।
देखत ननदी खोले किवार॥ होरी को. आवै.
सालिगराम बस्यों ब्रज जब से,
ऐसो फाग मच्यो नहिं तब ते।
इन बातन पै गुलचा खाय॥ होरी को. आवै.