रात-रात भर जब आशा का दीप मचलता है,
तम से क्या घबराना सूरज रोज़ निकलता है ।
कोई बादल कब तक रवि रथ को भरमाएगा,
ज्योति कलश तो निश्चित ही आँगन में आएगा,
द्वार बन्द मत करो भोर रसवन्ती आएगी,
कभी न सतवन्ती किरणों का चलन बदलता है ।
तम से क्या घबराना सूरज रोज़ निकलता है ।।
भले, हमें सम्मानजनक सम्बोधन नहीं मिले,
हम हैं ऐसे सुमन कभी गमलों में नहीं खिले,
अपनी वाणी है उद्बोधन गीतों का उद्गम,
एक गीत से पीड़ाओं का पर्वत गलता है ।
तम से क्या घबराना सूरज रोज़ निकलता है ।।
मत दो तुम आवाज़ भीड़ के कान नहीं होते,
क्योंकि भीड़ में सब के सब इनसान नहीं होते,
मोती पाने के लालच में नीचे मत उतरो,
प्रणपालक प्रण तूफ़ानों के सिर पर चलता है ।
तम से क्या घबराना सूरज रोज़ निकलता है ।।
ठीक नहीं है यहाँ वेदना को देना वाणी,
किसी अधर पर नहीं कामना कोई कल्याणी,
चढ़ता है पूजा का जल भी ऐसे चरणों पर,
जो तुलसी बनकर अपने आँगन में पलता है ।
तम से क्या घबराना सूरज रोज़ निकलता है ।।
रात कटेगी, कहो कहानी, राजा-रानी की,
करो न चिन्ता जीवन पथ में गहरे पानी की,
हँसकर तपते रहो छाँव का अर्थ समझने को,
अश्रु बहाने से न कभी पाषाण पिघलता है ।
तम से क्या घबराना सूरज रोज़ निकलता है ।।