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आशा की फ़स्ल खेत से हर बार लुटी है / हरेराम समीप
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आशा की फ़स्ल खेत से हर बार लुटी है
रखवाली यहाँ क्योंकि बिजूकों को मिली है
क्या चाहिए‚ बाज़ार में हर चीज़ रखी है
ये उससे नई‚ उससे नई‚ उससे नई है
क्यों चीज़ कोई साफ़ दिखाई नहीं देती
बाहर की धुंध है कि ये भीतर की नमी है
सच्चाई जीतती है हमेशा ही झूठ से
ये बात हमने सिर्फ किताबों में पढ़ी है
कोई तो निकाले इसे अब मौत के मुँह से
इन्सानियत तहजीब के मलबे में दबी है
जंगल में एक चिड़िया बची है‚ तो बहुत है
वो चीख के ख़ामोशियों को तोड़ रही है