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आशा में / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
कितने-कितने दिन निकल गये
इंतजार में
कभी न पहुँचे सुनहरे संसार में
हर दिन आता है और जाता है
थोड़ा सा हाथ छोड़
खिसक जाता है
हम थोड़े से उदासी से भरे
थके-थके से सो जाते हैं
लम्बी चादर में घुसकर
सुबह नया कुछ होने की आशा में।