भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आशा ले घूम रही पगली अब आओगे, अब आओगे / प्रेम नारायण 'पंकिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


आशा ले घूम रही पगली अब आओगे, अब आओगे।
पायेगी भिखमंगिनि भिक्षा प्रियतम! कितना तरसाओगे।
पल युग सम बीत रहा दृग से हा! कुछ न सूझने वाला है।
करूणेश! तुम्हारे बिना यहाँ दुख कौन बूझने वाला है।
विकसित नीलेन्दीवर मेरे मैं रस-मधुकरी तुम्हारी हूँ।
तुम हो मेरे तमाल-तरुवर मैं कनक-लता रसधारी हूँ।
आ तृषित चातकी के जलधर! बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥148॥