आशिक़ बुतों की करते रहे ख़ैरख़्वाही क्यों / निर्मल 'नदीम'
आशिक़ बुतों की करते रहे ख़ैरख़्वाही क्यों,
सर पर चढ़ी थी कैफ़ियत ए बादशाही क्यों।
जो कुछ सज़ा ए ज़र्फ़ हो वो दीजिये हुज़ूर,
दुश्मन हमारा देगा भला अब गवाही क्यों।
रोज़ ए जज़ा मिलेंगे अगर तो करेंगे बात,
साबित हम आज अपनी करें बेगुनाही क्यों।
तुमसे गुरूर ए इशरत ए जलवा न छुट सका,
फिर तर्क़ कर दें अपनी भी हम कजकुलाही क्यों।
दिल को ग़मों ने अश्कों से धोया है किसलिए,
पुरनूर शमअ ए ज़ख़्म से जश्न ए तबाही क्यों।
हमने तो ज़िक्र ए तश्नगी उनसे किया नहीं,
बेवजह रक़्स करने लगी है सुराही क्यों।
लिखता तो आसमां का वरक़ होता सुर्खरू,
कहते हो हमसे बिखरी पड़ी है सियाही क्यों।
जिसके हर एक संग पे सर मारना पड़े,
उस राह ए बेलिहाज़ पे चलता है राही क्यों।
अश्कों के साथ बह गयीं बीनाइयाँ नदीम,
क्या पूछते हो हमसे कि है कमनिगाही क्यों।