आशिकी से बहुत हूं परीशां मगर / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'
आशिकी से बहुत हूं परीशां मगर ,
इश्क भी कब हुआ इतना आसां मगर !
दिलकशी दिलफ़रेबी का आग़ाज़ है ,
जानता है ये दिल अपना नादां मगर !
मौत ले जाए जब भी ले जाना उसे ,
बांध लेने तो दे अपना सामां मगर !
आदमी से ख़ुदा माना मायूस है ,
किस के पूरे हुए सारे अरमां मगर !
सपने इतने कि बस मार देंगे हमें ,
और जीने का भी क्या है सामां मगर !
सामने उस के रख दूं ये शीशा तो मैं ,
वो हुआ हो कभी तो पशेमां मगर !
पेश कुछ तो अदब से तू आ ज़िन्दगी ,
चार दिन के सही , हैं तो मेहमां मगर !