भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आशीष / सुनीता जैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज जब बैठ गई हूँ,
चलना छोड़ दिया,
पहले पहल समझ आया
तुम चल-चल आये
कितना?

कितनी दूर-समय के,
खो गया तेज अंधड़ में,
वह छोटा पल-
सपना

मुझे नहीं पता है
क्या बाकी, देकर जो,
निर्मल कर लूँगी
यह रक्त-सना, कर
अपना

किन्तु यदि आशीषों का
कुछ भी फल होता है
तुम रहना, तुम रहना-
तुम रहना, तुम,
रहना!