आशी के लिए दो कविताएँ / अखिलेश्वर पांडेय
एक
घर लौटता हूँ तो
उसे देखते ही
मुख पर आ जाती है मुस्कान
वह ममता की नर्च चादर ओढ़े
सो रही होती है
उसकी पलकों की नीरवता मेरी आहट पहचान जाते हैं
उसके होठों पर बिखर आती है मुस्कान
उसके चुंबन से उदित होता है उषाकाल
गो कि दूब पर चमह उठी हो ओस
वह इंद्रधनुष के रंगों से
बादलों पर करती है चित्रकारी
ज्यामितिय रूपाकारों में
नाचते ही रहते हैं उसके नैन
उसके बालों में हाथ डाल
पकड़ लेता हूँ खुद की परछाई को.
दो
कुछ बटनों की टक-टक हुई
स्क्रीन पर उभर आया... आशी
यह असाधारण था
क्योंकि, यह उन ऊंगलियों का कमाल था
जिसका उन्हें इल्म तक नहीं था
कम्प्यूटर उसके लिए नई वस्तु थी
मैं चकित था
मेरे सामने मेरी बेटी
जो अभी सिर्फ तीन साल की है
कम्प्यूटर पर अपना नाम लिख रही है
कभी इस उम्र में मेरी ऊंगलियाँ
सरकंडे से बनी कलम से जूझती थीं
पेंसिलें भी नहीं
स्याही भरे जाने वाले कलम से
दवात, कागज लेकर स्कूल जाना
ऊंगलियों का स्याही से पुत जाना
बगल में खड़े मेरे मित्र अजित ने कहा
भाई साहब, यह न्यू जेनरेशन है
हमारो दिमाग से तेज इनकी उंगलियाँ चलती हैं