आश्वस्त / महेन्द्र भटनागर
ज़िन्दगी के दीप जिसने हैं बुझाये,
और भू के गर्भ से
उगते हुए पौधे मिटाये,
शस्य-श्यामल भूमि को बंजर किया जिसने,
नवल युग के हृदय पर मार
पैना गर्म यह खंजर दिया जिसने
उसी से कर रही है लेखनी मेरी बग़ावत !
रुक नहीं सकती
कि जब तक गिर न जाएगा धरा पर
आततायी मत्त गर्वोन्नत,
रुक नहीं सकता कभी स्वर
जब मुखर होकर
गले से हो गया बाहर,
रुक नहीं सकता कभी तूफ़ान
जिसने व्योम में हैं फड़फड़ाए पर,
रुक नहीं सकता कभी दरिया
कि जिसने खोल आँखें
ख़ूब ली पहचान बहने की डगर !
वह तो फैल उमड़ेगा,
कि चढ़कर पर्वतों की छातियों पर
कूद उछलेगा !
सभी पथ में अड़ी भीतें
गरज उन्मुक्त तोड़ेगा !
मुझे विश्वास है साथी
तुम्हारे हाथ
इतने शक्तिशाली हैं
कि प्रतिद्वन्द्वी पराजित हो
अवनि पर लोट जाएगा,
तुम्हारी आँख में
उतरी बड़ी गहरी चमकती तीव्र
लाली है
कि जिससे आज मैं आश्वस्त हूँ !
युग का अंधेरा छिन्न होएगा,
सभी फिर से बुझे दीपक
नयी युग-चेतना के स्नेह को पाकर
लहर कर जल उठेंगे !
सृष्टि नूतन कोपलों से भर
सुखी हो लहलहाएगी !
कि मेरी मोरनी-सी विश्व की जनता
नये स्वर-गीत गाएगी !
व खेतों में निडर हो
नाचकर पायल बजाएगी !
1952