भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आषाढ़स्य प्रथम दिवसे / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घन अकास में दीखा।
चार दिनों के बाद वह आएगी
मुझ पर छा जाएगी, सूखी रेतीली धमनी में फिर रस-धारा लहराएगी

वह आएगी-मैं सूखी फैलाव रेत (वह आएगी-)
मेरी कन-कनी सिंच जाएगी (वह आएगी-)
ठंड पड़ेगी जी को, आसरा मिलेगा ही को
नये अयाने बादल में मैं इकटक देख रहा हूँ पी को-

वह आएगी!
वह आएगी-
पहले बारे बादल-सी छरहरी, अयानी, लाज-लजी, अनजानी,
फिर मानो पहचान, जान यह सब कुछ उस का ही है

घहराते उद्दाम हठीले यौवन से इठलाती
खुले बन्द, खिले अंग; बेकल, सब-बौरन, मदमाती
वह आएगी-
लालसा का लाल, जय का लिये उजला रंग।
वह आएगी-

मेरी ढाँप लेगी नंग अपनी देह से बहते स्नेह से :
अभी सूखी रेत हूँ पर हो जाऊँगा हरा, गति-जीवित, भरा,
बालू धारा बन जाएगी-धारा आनी-जानी है
पर मेरी तो वह नस-नस की पहचानी है-
वह आएगी :

खिंच जाएगी हिमगिरी से आसमुद्र
बाँकी किन्तु अचूक एक जीवन की रेखा-जीवन बहता पानी है-
इन टूटे हुए कगारों में फिर जीती इन धारों की लम्बी, बे-अन्त कहानी है!
मैं ने घन अकास में देखा-परिचय का पहला निशान :
चेता, हरा हो गया सूखा ज्ञान! मैं ने लिया पहचान

वह आएगी!
घन अकास में दीखा :
वह आएगी!

जालन्धर, जुलाई, 1945