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आषाढ़स्य प्रथम दिवसे / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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यह असाढ़ का पहला दिन है
किन्तु एक भी मेघ
नहीं गुजरा ऊपर से,
पूरा ही आकाश
जलरहा है धूं-धूं कर!

मेरे मनका थका मरुस्थल
दरक रहा है,
छाया तक भी
नहीं दिखाई देती है
इस शून्य विजन में
आंखों में करवट लेती है
एक अदद शापित मरु-यात्रा!

जाने कब इस खाली-खाली
अंबर पर बिजली टूटेगी
और, हवा का झोंका
सहला देगा
मेरी मर्म-व्यथा को!
इस जंगल में
मैं एकाकी भटक रहा हूं
प्रियाहीन
रीता-रीता-सा,

तेज धूप का यह अनुभव
मुझको लगता
तीखा-तता-सा!
अभिशापों वाली यह यात्रा
मुझको तोड़ रही भीतर तक
लू के घमकों से टकराकर
टूट रहा मेरा आकुल स्वर
गर्म रेत वाले पठार पर
सूख रही आंखों की भाषा
चटक रही शीशे-सी आशा!
किरणों में
प्रतिबिम्ब मेघ का
दिखता है
फिर बिखरजाता
गर्म रेत पर छितरा जाता!

सारा ही मौसम उदास है
वैसे ही मेरा मन उन्मन
भोग रहा दुर्वह निर्वासन
ताक रहा है
खाली-खाली आसमान को
मेघदूत की प्रत्याशा में
जो मेरी
विरहाक्रांता, मासूम प्रिया तक
मेरे रागाकुल, भावातुर
स्वर पहुंचा दे!

पर खाली-खालीअंबर है
टूट रहा मेरा हर स्वर है
इस असाढ़ के पहले दिन में
मेघहीन दोपहरी के
दुर्दान्त क्षणों को
अपने मन पर झेल रहा मैं!
मन-जो बेहद ही उदास है!
मेरी मर्म-व्यथा कहने को
प्रस्तुत होता नहीं किन्तु
अब कालिदास है!
वह कुबेर के अभिनंदन में
अभिशंसा के ग्रंथ
रच रहा
उसके भीतर का
जो कवि था
कहां बच रहा!

वह मूल्यों का मोल लगाकर
सब संवेदन
बेच-बाच कर
नव कुबेर बनने की धुन में
अलकापुरी खरीद रहा है
मेघपंखिनी आकांक्षा को
अंकशायिनी बना-बनाकर
नीलहंसिनी भावुकता को
बींध रहा है!

अब वह अपने काव्यबंध में
वाग्विदग्ध काव्य भाषा का
रागाकुलता का
करुणा का
उपमा और अर्थ-गौरव का
गरिमाहीन
निरर्थक
इस्तेमाल कर रहा!

उसके भीतर की चिनगारी
ठंडी राख बनी
फिर जाने कहां उड़ गई
मेरी विरह-वेदना में
यह एक त्रासदी
और जुड़ गई!