भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आषाढ़ के आँसू / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
सोचा था मिल कर तुमसे, कर लूंगा मन की बातें
कुछ जो रीत रहा है रह-रह शायद वह रुक जाए
तुम्हें देख कर मेरा ये अवसाद अटल झुक जाए
शुक्ल पक्ष की मधुर चाँदनी से खिल जाए रातें।
रोओं को लग जायेंगे बादल के पंख निराले
गूंजे कानों में कलियों की फिर से हँसी अचानक
खिले लाल सेमल पर आँखें गड़ी रहेंगी एकटक
जूही की साँसों से साँसें सुरभित होंगे छाले ।
एक गीत जिसको मैं लिखना कबसे चाह रहा था
उमड़े-उमड़े भाव, छन्द में लेकिन नहीं समाए
अर्थहीन-से शब्द; मेघ के टुकड़े आए-जाए
ज्ञात कहाँ था, मेरा दुर्दिन मुझको थाह रहा था ।
वही अकेलापन का सर-सर, मर्मर, खर-खर, हर-हर
आखिर क्या मन सोच गया, जो आँखे आईं भर-भर !