आषाढ़ - २ / ऋतु-प्रिया / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
झमकि-झमकि बरसि रहल पावस केर राति रे!
दिनकर-कर सँ प्रचण्ड
पौलक सब जन्तु दण्ड
सहि न सकल उषम ताप
उमड़ल नव घन घमण्ड
कृषक-वृन्द कल्पना करैछ भाँति-भाँति रे!
ककर फुजल केश-पाश
ककर सजल मनाकाश
ककर अलस नयन मदिर
ककर रुचिर चन्द्र-हास?
छमकि छमकि छिटकि रहलि बिजुरी मद-माँति रे!
पहुँचल आषाढ़ आइ
आशा मन मे बताहि
ताहि बीच भावनाक
पसरि रहल मृदुल बाँहि
वसुधा पुनि पाबि सुधा हरित भरित काँति रे!
कालिदास केर यक्ष
पक्ष-हीन पड़ल कतहु
यक्षिणीक कंज-नयन
विरह-तरल गड़ल कतहु
गरल-पान करक हेतु बैसलि जी जाँति रे!
गरजि तरजि बरजि रहल
सिरजि रहल नवल सृष्टि
दिगदिगन्त फेकि रहल
पावस निज कुपित दृष्टि
मनहि मनहि उमकि रहल खेत मे जजाति रे!
अन्तर मे शुचि विचार-
केर उठय नव उजाहि
जाहि बीच चितिर-बितिर
दलित वर्ग केर आहि
त्राहि-त्राहि तदपि करय एक दीन जाति रे!
झमकि झमकि बरसि रहलि पावस केर राति रे!