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आसमानी होना चाहती हूँ / शुभा द्विवेदी

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सागर की गहराई भी कम है
जानती हूँ प्रस्तर भूखंड हैं वहाँ असीम जलराशि के नीचे
पहले इसी गहराई में मन डूब जाता था
लेकिन गहराते-गहराते इतने अंदर पहुँचा मन कि
पत्थरों से टकराकर चोट खाकर लहूलुहान हो गया
नहीं जाना सागर के पास
मन डूबना चाहता है अनंत आसमान के नीलेपन में
नीलाभ के रंग में रंग जाना चाहती हूँ
कोई खोज ही न सके, इतना छुप जाना चाहती हूँ
कोई मन को चोट न दे सके, इस तरह छुपाना चाहती हूँ इसे
न मैं डरी हूँ, न सहमी हूँ, निडर हूँ मैं
पहाड़ों-सा दुःख सह सकती हूँ, इतनीक्षमता है मुझमे
चट्टान-सी खड़ी हूँ इस निर्मम संसार में
कितनी वेदनाये सही है, हार कभी मानी नहीं
लेकिन जीत! जीत कभी अपनों से नहीं पायी
अपनों से जीता नहीं हारा जाता है
हृदय के गहरे घाव छुपाते-छुपाते थक गयी हूँ
सुर्ख लाल रंग के घाव
इसलिए अब सिर्फ आसमानी होना चाहती हूँ।