भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आसमानों में गरजना और है / द्विजेन्द्र 'द्विज'
Kavita Kosh से
आसमानों में गरजना और है
पर ज़मीं पे भी बरसना और है
सिर्फ़ तट पर ही टहलना और है
और लहरों में उतरना और है
दिल में शोलों का सुलगना और है
और शोलों से गुज़रना और है
बिजलियाँ बन टूट गिरना और है
बिजलियाँ दिल में लरज़ना और है
रतजगे मर्ज़ी से करना और है
रोज़ नींदों का उचटना और है
है जुदा घर में उगाना कैक्टस
रोज़ काँटों में गुज़रना और है
ख़ुशबुओं से ढाँपना ख़ुद को जुदा
पर पसीने से महकना और है
इस घुटन में साँस लेना है अलग
आग सीने में सुलगना और है
जाम भर कर ‘द्विज’, पिलाना है जुदा
क़तरे— क़तरे को तरसना और है