भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आसमान में छेद कराते दादाजी / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
गरम दूध मुझको पिलवाते दादाजी|
काजू या बादाम खिलाते दादाजी|
थाली में भर भर कर चंदा की किरणे,
मुझे चांदनी में नहलाते दादाजी|
कभी कभी जब मैं जिद पर अड़ जाता हूं,
तोड़ गगन से लाते तारे दादाजी|
मुझको जब भी लगती है ज्यादा गरमी,
बादल से सूरज ढकवाते दादाजी|
नहीं बूंद भर पानी जब होता घर में,
आसमान में छेद कराते दादाजी|
फिर वे मेघों को आदेश दिया करते,
जब चाहे जब जल गिरवाते दादाजी|