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आसार-ए-कदीमा/जावेद अख़्तर
Kavita Kosh से
एक पत्थर की अधूरी मूरत
चंद तांबें के पुराने सिक्के
काली चांदी के अजब जेवर
और कई कांसे के टूटे बर्तन
एक सहरा में मिले
जेरें-जमी<ref>जमीं के निचे</ref>
लोग कहते है की सदियों पहले
आज सहारा है जहां
वहीँ एक शहर हुआ करता था
और मुझको ये ख्याल आता है
किसी तकरीब <ref>समारोह</ref>
किसी महफ़िल में
सामना तुझसे मेरा आज भी हो जाता है
एक लम्हे को
बस एक पल के लिए
जिस्म की आंच
उचटती-सी नजर
सुर्ख बिंदिया की दमक
सरसराहट तेरी मलबूस <ref>लिबास</ref> की
बालों की महक
बेख़याली में कभी
लम्स <ref>स्पर्श</ref> का नन्हा फूल
और फिर दूर तक वही सहरा
वही सहरा की जहां
कभी एक शहर हुआ करता था
शब्दार्थ
<references/>