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आसार-ए-रिहाई हैं ये दिल बोल रहा है / क़लक़

आसार-ए-रिहाई हैं ये दिल बोल रहा है
सय्याद सितम-गर मेरे पर खोल रहा है

जामे से हवा जाता है बाहर जो हर इक गुल
क्या बाग़ में वो बंद-ए-क़बा खोल रहा है

शाहों की तरह की है बसर दश्त-ए-जून में
दीवानों का हम-राह मेरे ग़ोल रहा है

तस्कीं को ये कहते रहे फ़ुर्क़त की शब अहबाब
लो सुब्ह हुई मुर्ग़-ए-सहर बोल रहा है

दिल तो दिया मीज़ाँ नहीं पटती नज़र आती
नज़रों में वो ख़ुश-चश्म मुझ तोल रहा है