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आसा की जोत / गुणसागर 'सत्यार्थी'
Kavita Kosh से
रैंन अँदिरिया गैल भुलानी;
हिलबिलान हो गई जिँदगानी।
मिरगा ढूँड़ रए कस्तूरी,
आसा होत न उनकी पूरी।
भरत चौकड़ीं देख मरीची
कितनी नाप लई है दूरी।
सेंत-मेंत हो रई नादानी;
हिलबिलान हो रई जिँदगानी।
कौन घरी में भाँवर पारी,
घिरी बदरिया कारी-कारी।
धुरुब तरइया देख न पाए-
कैसें गैल मिलै अबढारी?
थेबौ खात फिरत अग्यानी;
हिलबिलान हो गई जिँदगानी।
दूर बजत कऊँ ढोल-नगारे,
बैरे हो गए कान हमारे।
बेबस होकें सबई तराँ सें-
भटक रए नित मारे-मारे।
चीर दए नभ-थल औ पानी,
हिलबिलान हो रई जिँदगानी।
आसा तौऊ पैले पार,
कैसें कोऊ मानें हार।
हार न मानी जब मकरी नें,
गिर-गिर चढ़त रई हरदार।
चढ़ी-चढ़ी मकरन्दो रानी;
इक दिन पार लगै जिँदगानी।