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आस्ताँ सो गए खिड़कियाँ सो गईं / देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र'
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आस्ताँ सो गए खिड़कियाँ सो गईं
चश्म-स-नम सो गए, सिसकियाँ सो गईं
रातभर बम बरसते रहे मौत के
सरहदों पर बसी बस्तियाँ सो गईं
कुछ हवा ज़ह्र में डूबी ऐसी चली
पेड़ पर जागती पत्तियाँ सो गईं
फ़ैसलों के अभी मुन्तज़िर लोग हैं
फ़ाइलों में बँधी अर्ज़ियाँ सो गईं
जाल लहरों से करते रहे गुफ़्तगू
ताल में बेख़बर मछलियाँ सो गईं