आस्था की प्रतिध्वनियां / श्रीकांत वर्मा
जीवन का तीर्थ बनी जीवन की आस्था।
आंसू के कलश लिए
हम तुम तक आती हैं।
हम तेरी पुत्री हैं, तेरी प्रतिध्वनियां हैं।
अपने अनागत को
हम यम के पाशों से वापस ले आने को आतुर हैं।
जीवन का तीर्थ बनी ओ मन की आस्था!
अंधकार में हमने जन्म लिया
और बढी,
रुइयों-सी हम, दैनिक द्वंद्वों में धुनी गईं।
कष्टों में बटी गईं,
सिसकी बन सुनी गईं,
हम सब विद्रोहिणियां कारा में चुनी गईं।
लेकिन कारा हमको
रोक नहीं सकती है,
रोक नहीं सकती है,
रोक नहीं सकती है!
जन-जन का तीर्थ बनी ओ जन की आस्था!
मीरा-सी जहर पिए
हम तुझ तक आती हैं।
हम सब सरिताएं हैं।
समय की धमनियां हैं,
समय की शिराएं हैं।
समय का हृदय हमको चिर-जीवित रखना है।
इसीलिए हम इतनी तेजी से दौड रहीं,
रथ अपने मोड रहीं,
पथ पिछले छोड रहीं,
परम्परा तोड रहीं।
लौ बनकर हम युग के कुहरे को दाग रहीं।
सन्नाटे में ध्वनियां बनकर हम जाग रहीं।
जीवन का तीर्थ बनी, जीवन की आस्था।