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आस्था - 14 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
अगर मैं उन शब्दों को
जिन्हें मैं समझता हूँ
आपके समक्ष रख सकंू
और बता सकंू
मानव क्यों
इन शब्दों से
खिलवाड़ कर रहा है
मुझे डर है, मेरी कविता
कविता न रहकर
एक शब्दकोश
बनकर रह जाएगी
क्योंकि
कम्प्यूटर के युग में
शब्द तो दूर की बात है
अक्षर भी
अपनी मौलिकता खोने लगे हैं
यह शायद
इसलिये हो रहा है
नैतिकता और आध्यात्मिकता
कम्प्यूटर स्वीकार करने से
इन्कार कर देता है।
उसे तो चाहिये
ऐसे कार्यक्रम
जिसमें चिंतन के लिये
कोई जगह न हो
और होने चाहिये
ऐसे शब्द
जिससे दार्शनिकता की
बू न आती हो।