टुकड़ों में बटकर
मानवता
अपंग होकर रह गई है
और मानव है कि
उसे बांटे ही
चला जा रहा है।
कौन देगा न्याय उसे
वह तो
सहकर रह जाती है
कोड़ों की मार
अपने बदन पर
जब मानव खींचता है
मानव के खून से
सीमाएँ देशों की
और दे देता है
उसे नाम मातृभूमि का।
यह आस्था का ही
अभाव है
उसे अपनी आत्मा पर
मानवता के प्रति
हीन विचारों की धूल
दिखाई नहीं दे रही है।
और ढूंढ रहा है
प्रकृति में
हीरे और जवाहरात।