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आस्था - 22 / हरबिन्दर सिंह गिल

जरूरत है
एक ऐसी आस्था की
जिसकी विचार रूपी ईटों से
बन सके
एक ऐसा घर
जिसकी मानवता
सदियों से
करती आई है, अभिलाषा
क्योंकि मानवता
जिस गली में
रह रही है
वहाँ उसका घुट रहा है, दम।

शायद
मानव के कुकर्मों ने
और
उसके हीन विचारों
ने फैला दिया है चारों तरफ
एक ऐसा प्रदूषण
जहाँ मानवता की
आध्यात्मिक तरंगें
तोड़ रहीं हैं, दम अपना।

परंतु मानव
मातृ-भूमि रूपी
महल की चाह में
दुनियाँ से बेखबर
उजाड़े चले जा रहा है
बस्ती की बस्तियां
बिना सोचे-विचारे
यहीं कहीं
रहती है मानवता
जिसके आंगन में
खेलकर वह बन सकता है
एक मानव।