भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आस्था - 25 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
यह इसलिये हो रहा है
मानव के मस्तिष्क में
चिंतन की जगह
फार्मूलों ने ले ली है
और कारखानों से
बनकर निकल रहे हैं
बरबादी के समीकरण
क्योंकि
मानवीय विचारों को
बाजार में
रद्दी के भाव भी
कोई
लेने को तैयार नहीं
जब तक कि
वो छप न जाए
और उसके बाद
उन्हें
चाय की दुकान पर
या पान की पुड़िया में
या फिर मयखाने के सामने
भजिये की प्लेट में
उपयोग करके
कूड़े-दान में
फेंक न दिया जाये।
इसके विपरीत
मातृभूमि के नाम
ऐसा कोई भी समीकरण
जो चारों तरफ
मचा दे, हाहाकार
काफी है
न सिर्फ स्वयं के लिये
अपितु
आने वाली पीढ़ियों के लिए भी।