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आस्था - 2 / हरबिन्दर सिंह गिल
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इन्हीं शब्दों में
एक शब्द मानव स्वयं है
पर मानव उसे
समझ नहीं पा रहा है।
यह इसलिये हो रहा है
शायद मानव
मानवता से तोड़ नाता
जीना चाहता है
अपने आप में।
यही कारण है
मानव अपना अस्तित्व
खोता जा रहा है
और उभर रहा है
चारों तरफ
एक झुंड की तरह
और इसी झुंड में
जी रही है, मानवता।
कभी उसका दम घुटता है
कभी वो सिसकियाँ भरती है
पर मानव है, कि उसे
रौंदे जा रहा है
अपने पैरों तले।