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आस्था - 41 / हरबिन्दर सिंह गिल

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मानवता को जब मैं
काल्पनिक दुनियाँ में
निहारता हूँ
कहीं कुछ, बहुत ज्यादा अधूरा सा दिखाई
देता है
जो उसके
चेहरे की उदासी को
और भी दयनीय बना देता है
जैसे माँ
अपने ही बच्चों के घर में
अनाथ होकर रह गई हो।
उसके चेहरे पर
कुछ खोया सा
लग रहा था
जिसके अभाव में
शायद
नारी का व्यक्तित्व
या तो अधूरा लगता है
या फिर नग्न
होकर रह जाता है।
हाँ, उसे चुनरी कहते हैं।